‘अरे वर्षा तूं यहाँ , तेरे तो बड़े चर्चे हैं आजकल।’
योगिता ने अपनी सहेली वर्षा को अपने शहर के माल में देखते हुए पूछा।
‘कैसे चर्चे ?’ अपनी प्रसिद्धि की बात अपने सहेली की होठों से सुनकर गर्वित होते हुए वर्षा ने पूछा था।
‘अरे वही तेरी प्रसव विरोधी और बच्चे न पैदा करने वाली क्रांति की।’
‘हाँ.. हाँ… वो तो है। ‘वर्षा योगिता के सामने अपनी क्रांति की ख़ुशी बिखेरते हुए बोली ‘वो क्या है योगिता कौन बच्चे पैदा करे, उन्हें संभाले और उनके चक्कर में मैं अपनी जवानी गर्क करे।’
‘पर कालेज टाईम में तो तूं बड़े चाव से शादी के बाद बच्चे पैदा करने उनकी अच्छी परवरिश की बातें किया करती थी।’
योगिता के सवाल पर वर्षा बायीं आँख दबाते हुए बोली ‘यार तूं तो जानती है मैं कितनी होशियार हूँ परस्थितयों को कैसे अपनी तरफ मोड़ लेना है ये मैं बखूबी कर सकतीं हूँ।’
‘मतलब ?’ योगिता की सवालिया नजर वर्षा पर टिक गई।
‘वो क्या है वर्षा मुझे पता चल गया था कि मैं कभी बच्चे पैदा नहीं कर सकती इसलिए मैने प्रसव विरोधी क्रांति का आगाज कर दिया।’
वर्षा न जाने क्या – क्या बोले जा रही थी और योगिता उसकी प्रसव विरोधी क्रांति का सच सुनकर आश्चर्य से बस उसे देखे जा रही थी।
–सुधीर मौर्य
होश सँभालते ही जिस विषय ने मुझे सबसे अधिक आकर्षित किया वो इतिहास है और इतिहास में भी मैने उन पात्रों को सबसे ज्यादा अपने निकट पाया जो आक्रांताओं से संघर्ष में किसी भी प्रकार न डिगे या फिर जिन पर इतिहास आशिंक रूप से मौन बना रहा। जिनकी वीरता, त्याग और संघर्ष की कथा लोग जान न सके।
‘देवगिरि’ एक भव्य राज्य की राजधानी जिसकी विडंबना अलाउद्दीन खिलज़ी, मुबारकशाह खिलज़ी और मुहम्मद तुग़लक़ के राक्षसी राज में लगातार तब तक होती रही जब तक उसकी वास्तविक पहचान मिटाकर उसे दौलताबाद न बना दिया गया। देवगिरि से दौलताबाद बनने के मार्ग में शंकरदेव और हरपालदेव जैसे न जाने कितने वीर अपनी मातृभूमि पर बलिदान होते रहे।
देवगिरि ने जो अपने प्रिय युवराज शंकरदेव की पत्नी देवलदेवी का तुर्कों द्वारा हरण का दारुण दृश्य देखा तो इसी देवगिरि ने अपनी ही भूमि पर अपनी ही गोद में खेली राजबाला छिताई का एक तुर्क आक्रांता के साथ बलात विवाह भी देखा। उसकी विवशता और झरते अश्रु देखे।
प्रस्तुत उपन्यास की नायिका छिताई देवगिरि की वो अभागन राजकन्या है जिसके पिता रामदेव ने विवश होकर संधिस्वरूप उसे अलाउद्दीन खिलज़ी को समर्पित कर दिया।
दिल्ली के शाही हरम में अपने प्रेमी सौरसी के विरह में प्रतिदिन सैकड़ों दुखो को सहन करते हुए अपने जीवन की संध्या में विजयनगर जैसे साम्रज्य का सूर्योदय देखने तक ना जाने कितने घटनाक्रम की साक्षी है इस इस उपन्यास की नायिका – छिताई।
अलाउद्दीन खिलज़ी के क्रूर शासनकाल पर मैं पहले ‘देवलदेवी और ‘हम्मीर हठ’ नाम के ऐतिहासिक उपन्यास लिख चुका हूँ। अब उसी काल पर मैं अपना तीसरा उपन्यास ‘छिताई’ आप सबको भेंट करते हुए अत्यंत हर्ष का अनुभव कर रहा हूँ।
आशा है आप सबको ये उपन्यास पसंद आएगा और देवि छिताई की आत्मा को भी संतुष्टि की प्राप्ति होगी।
महान ईश्वर को अपना सबकुछ समर्पित करते हुए आपका –
कह कर सुल्तान अलाउद्दीन खिलज़ी हंस पड़ा। दम्भी और वहशी हंसी। देवी छिताई कुछ क्षण उसकी वाहिशयानी हंसी देखती रही और पैतरा बदल के वही ज़मीन पर दोनों घुटने मोड़ के उन पर अपने स्थूल नितम्बो के सहारे बैठते हुए किसी बिफरी हुई शेरनी की भांति दहाड़ते हुए बोली ‘हाँ सुलतान ये तुम्हारी और तुम्हारी तलवारे अलाई दोनों की खुशकिस्मती है और वक़्त का फेर है कि तुम्हारा सामना चन्द्रगुप्त मौर्य से नहीं हुआ। जब उनके सामने वास्तविक सिकंदर न टिक सका तो खुद को सिकंदर सानी नाम से तसल्ली देने वाले तुम कैसे टिक पाते।’
‘अच्छा हुआ सुल्ताने हिन्द तुम्हारा सामना समय की चाल के सौभाग्य से ‘समुद्रगुप्त और १६ वर्ष की आयु में हुणों को खदेड़ने वाले स्कंदगुप्त से नहीं हुआ। सच तुम्हारी किस्मत बाबुलंद है जो विक्रमादित्य, हर्षवर्धन और पुलिकेशन दवतीय से तुम्हारा सामना नहीं हुआ नहीं तो तुम्हारी तलवारे अलाई को चूर्ण में परिवर्तित कर दिया गया होता। तुम्हारी किस्मत का सच में रोशन हे मेरे पतिदेव जो तुम्हारे सामने बाप्पा रावल और नागभट्ट नहीं आये नहीं तो….।’
Sudheer Maurya
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गया से आई लुमिनी से आई
कुशीनारा के शाकमुनी से आई
कंथक के पीठ पे सवार हो के आई
ज्ञान की गाड़ी बयार हो के आई
अनोमा के तीर से निरंजना के नीर से
पीपल की छांव से पावा के ठाँव से
संकिसा के चैत्य विहार हो के आई
ज्ञान की गाड़ी बयार हो के आई
जेतवन के बाग से वैशाली के भाग से
उपालि के हाथ से सुनीति के साथ से
आलवी से गंगा की धार हो के आई
ज्ञान की गाड़ी बयार हो के आई
गौतमी से माया से विशाखा की छाया से
सुजाता की खीर से अंबाली के धीर से
कोलिय के गांव से सिंगार हो के आई
ज्ञान की गाड़ी बयार हो के आई।
–सुधीर मौर्य
दिन होके मेरे पुरवाई बहे
फूलों से महकती रात रहीं
जो कुछ वर्षों तुम साथ रहीं।
जब बनके रहे प्रेयस प्रेयसी
अपने वो स्वर्णिम वर्ष रहे
ओठों पे पुष्पों से खिलते
उद्देश्य रहें, निष्कर्ष रहें
मंदिर मे, कभी झील किनारे
तुम हाथों में देकर हाथ रहीं
जो कुछ वर्षों तुम साथ रहीं।
एक तेरी छवि ही देखूं मैं
चहुं ओर दिशा दिगंतर मे
सांसो की तुम्हारी महक बसे
बस मेरे मन के अंतर में
सबकुछ भुला दिया लेकिन
स्मरण बस तेरी बात रहीं
जो कुछ वर्षों तुम साथ रहीं।
पत्रों को अंतिम चुंबन कर
गंगा मे विसर्जित कर डाला
जो अब तक ह्रदय तुम्हारा था
यादों को समर्पित कर डाला
आंखो में तुम्हारे सपनों की
रात्रि – दिवस बारात रही
जो कुछ वर्षों तुम साथ रहीं।
–सुधीर मौर्य
दिन होके मेरे पुरवाई बहे
फूलों से महकती रात रहीं
जो कुछ वर्षों तुम साथ रहीं।
जब बनके रहे प्रेयस प्रेयसी
अपने वो स्वर्णिम वर्ष रहे
ओठों पे पुष्पों से खिलते
उद्देश्य रहें, निष्कर्ष रहें
मंदिर मे, कभी झील किनारे
तुम हाथों में देकर हाथ रहीं
जो कुछ वर्षों तुम साथ रहीं।
एक तेरी छवि ही देखूं मैं
चहुं ओर दिशा दिगंतर मे
सांसो की तुम्हारी महक बसे
बस मेरे मन के अंतर में
सबकुछ भुला दिया लेकिन
स्मरण बस तेरी बात रहीं
जो कुछ वर्षों तुम साथ रहीं।
पत्रों को अंतिम चुंबन कर
गंगा मे विसर्जित कर डाला
जो अब तक ह्रदय तुम्हारा था
यादों को समर्पित कर डाला
आंखो में तुम्हारे सपनों की
रात्रि – दिवस बारात रही
जो कुछ वर्षों तुम साथ रहीं।
–सुधीर मौर्य
घड़े में पानी लेकर रनिया नदी से जाने को हुई तभी वहां गाँव के प्रधान चेतराम अपने परिवार के साथ नहाने आ गये। रनिया कुछ देर उन सबको नदी में मस्ती से नहाते हुए देखते रही। जब वो घर पहुंची तो उसके पति अगिया ने उससे चिल्लाते हुए देर से आने की वजह पूछी। रनिया डरते हुए बोली ‘वहां प्रधान सपरिवार नहाने आ गए सो कुछ देर हो गई।’
‘बेशर्म औरत..’ अगिया दहाड़ते हुए बोला ‘गैर मर्द को नहाते देखती है रुक अभी तुझे मजा चखाता हूँ। अगिया ने अपने बड़े लड़के को बुलाकर उसे अपनी अम्मा को पीटने को कहा। पूरा माजरा समझने के बाद अम्मा की कोई गलती न देख लड़का वहां से चुपचाप चला गया।
अब अगिया ने गुस्से से उबलते हुए अपने दूसरे लड़के पारस को बुलाकर उसे रनिया को पीटने को कहा। पारस अपनी अम्मा पर टूट पड़ा और उसको रुई की तरह धुनने लगा। रनिया दर्द से .छटपटाती रही पर पारस उसे पीटता रहा। अगिया पत्नी को तड़पता देख अट्ठाहस करके हँसता रहा।
रनिया पूरी रात दर्द से तड़पती रही। सुबह अगिया ने पारस से कहा जाकर अम्मा के लिए डाक्टर से मरहम और दवा ले आये। पारस जब डाक्टर से दवा और मरहम लेकर आ रहा था तो रास्ते में गाँव की एक काकी ने उससे पूछा ‘पारस कहाँ से आ रहे हो।’
‘कुछ नहीं काकी अम्मा को तनिक चोट लग गई है सो डाक्टर से मरहम दवा ले आये हैं।’
‘कितनी सेवा करते हो तुम अपनी अम्मा की। भगवान तुम जैसा सुपुत्र सबको दे।’ काकी ने कहा और लाठी टेकते हुए आगे बढ़ गई।
–सुधीर मौर्य
धनुष कमान सी आँखों वाली
सेमी करली बालों वाली
मेरे घर के बगल की छत पे
उजले उजले कांधो वाली
तूँ हूर कोई बहिश्त की
तेरी कमर एक बालिश्त की।
होंठ तुम्हारे दहके दहके
रूप तुम्हारा झलके झलके
धरती अम्बर तक हिल जाये
चाल चलो जब लहके लहके
तुम हसरत मेरी ज़ीस्त की
तेरी कमर एक बालिश्त की।
सतसैया की अंगड़ाई सी
पद्माकर की अमराई सी
तुम विद्यापति की कीर्तलता
शृंगार छंद बरदाई सी
तुम नीरज गीत नशिश्त की
तेरी कमर एक बालिश्त की।
–सुधीर मौर्य
दिन भर ढेरो काम करके थका हुआ रमजानी शाही हरम के शाही कमरे में शाही बिस्तर शंहशाह के लिए लगा रहा था।
बिस्तर लगने के बाद थके हुए रमजानी को न जाने क्या सूझा वो शाही बिस्तर पर कुछ पलो के लिए ये सोच कर लेट गया कि किसी के आने से पहले उठ जायेगा। वाह क्या नरम मुलायम बिस्तर था, रमजानी की कल्पनाओ से परे।
कुछ तो थकन कुछ तो शाही बिस्तर की नरमाहट का असर रमजानी की आंख लग गई।
धार्मिक तकरीरे सुनने के बाद शंहशाह अपना कमरे मे निद्रा के लिए आया। अपने शाही बिस्तर पर रमजानी को सोता देख वो गुस्से से आगबबूला हो कर दहाड़ उठा। रमजानी जग कर डर से थर थर कांपते हुए शंहशाह के कदमो पर गिर कर रहम की भीख मांगने लगा किन्तु निष्ठुर शंहशाह ने पहरेदारो को बुला कर रमजानी को महल के बुर्ज से जमीन पर फेंक कर मारने का हुक्म दे दिया। रमजानी की अंतिम चीख कुछ पलो मे ही कंठ से निकलकर शाही बिस्तर पर लेटे शंहशाह के कानो मे घुसने से पहले अनन्त मे विलीन हो गई।
रमजानी शंहशाह अकबर का गुलाम था।
–सुधीर मौर्य
हम्मीर हठ Hammir Hath
शीघ्र प्रकाश्य ऐतहासिक उपन्यास #हम्मीर_हठ से
‘मरहठ्ठी बेगम तुम क्या खुशनसीबी और वक़्त की फेर की बात कर रही हो जबकि सच तो ये है कि आज सारी ज़मीन पर कहीं भी कोई भी तलवारे अलाई का मुकाबला करने की हिम्मत और हिक़ामत नहीं कर सकता।’
कह कर सुल्तान अलाउद्दीन खिलज़ी हंस पड़ा। दम्भी और वहशी हंसी। देवी छिताई कुछ क्षण उसकी वाहिशयानी हंसी देखती रही और पैतरा बदल के वही ज़मीन पर दोनों घुटने मोड़ के उन पर अपने स्थूल नितम्बो के सहारे बैठते हुए किसी बिफरी हुई शेरनी की भांति दहाड़ते हुए बोली ‘हाँ सुलतान ये तुम्हारी और तुम्हारी तलवारे अलाई दोनों की खुशकिस्मती है और वक़्त का फेर है कि तुम्हारा सामना चन्द्रगुप्त मौर्य से नहीं हुआ। जब उनके सामने वास्तविक सिकंदर न टिक सका तो खुद को सिकंदर सानी नाम से तसल्ली देने वाले तुम कैसे टिक पाते।’
‘अच्छा हुआ सुल्ताने हिन्द तुम्हारा सामना समय की चाल के सौभाग्य से ‘समुद्रगुप्त और १६ वर्ष की आयु में हुणों को खदेड़ने वाले स्कंदगुप्त से नहीं हुआ। सच तुम्हारी किस्मत बाबुलंद है जो विक्रमादित्य, हर्षवर्धन और पुलिकेशन दवतीय से तुम्हारा सामना नहीं हुआ नहीं तो तुम्हारी तलवारे अलाई को चूर्ण में परिवर्तित कर दिया गया होता। तुम्हारी किस्मत का सच में रोशन हे मेरे पतिदेव जो तुम्हारे सामने बाप्पा रावल और नागभट्ट नहीं आये नहीं तो….।’
–सुधीर मौर्य